hum hindi hain.

मैं हिन्दी हूँ ....
मैं सूरदास की दृष्टि बनी
तुलसी हित चिन्मय सृष्टि बनी
मैं मीरा के पद की मिठास
रसखान के नैनों की उजास
मैं हिन्दी हूँ ...
मैं सूर्यकान्त की अनामिका
मैं पन्त की गुंजन पल्लव हूँ
मैं हूँ प्रसाद की कामायनी
मैं ही कबीरा की हूँ बानी
मैं हिन्दी हूँ ....
खुसरो की इश्क मज़ाजी हूँ
मैं घनानंद की हूँ सुजान
मैं ही रसखान के रस की खान
मैं ही भारतेन्दु का रूप महान
मैं हिन्दी हूँ ....
हरिवंश की हूँ मैं मधुशाला
ब्रज, अवधी, मगही की हाला
अज्ञेय मेरे है भग्नदूत
नागार्जुन की हूँ युगधारा
मैं हिन्दी हूँ....
मैं देव की मधुरिम रस विलास
मैं महादेवी की विरह प्यास
मैं ही सुभद्रा का ओज गीत
भारत के कण-कण में है वास
मैं हिन्दी हूँ ....
मैं विश्व पटल पर मान्य बनी
मैं जगद् गुरु अभिज्ञान बनी
मैं भारत माँ की प्राणवायु
मैं आर्यावर्त अभिधान बनी
मैं हिन्दी हूँ...
मैं आन बान और शान बनूँ
मैं राष्ट्र का गौरव मान बनूँ
यह दो तुम मुझको वचन आज
मैं तुम सबकी पहचान बनूँ
मैं हिन्दी हूँ.....

जिस तरह चाहे नचा ले तू ..

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उदासियों की वजह बहुत है जिंदगी में...

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कहानी एक दुल्हन की ..

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शादी की सुहागसेज पर बैठी
एक स्त्री का पति जब भोजन
का थाल लेकर अंदर आया
तो पूरा कमरा उस स्वादिष्ट
भोजन की खुशबू से भर गया।
रोमांचित उस स्त्री ने अपने
पति से निवेदन किया कि
मांजी को भी यहीं बुला लेते
तो हम तीनों साथ बैठकर
भोजन करते।
पति ने कहा छोड़ो उन्हें वो
खाकर सो गई होंगी आओ
हम साथ में भोजन करते
है प्यार से,
उस स्त्री ने पुनः अपने पति से
कहा कि नहीं मैंने उन्हें खाते हुए
नहीं देखा है, तो पति ने जवाब
दिया कि क्यों तुम जिद कर रही
हो शादी के कार्यों से थक गयी
होंगी इसलिए सो गई होंगी,
नींद टूटेगी तो खुद भोजन कर
लेंगी। तुम आओ हम प्यार से
खाना खाते हैं।
उस स्त्री ने तुरंत devoice लेने का
फैसला कर लिया और devoice
लेकर उसने दूसरी शादी कर ली
और इधर उसके पहले पति ने
भी दूसरी शादी कर ली।
दोनों अलग- अलग सुखी घर
गृहस्ती बसा कर खुशी खुशी
रहने लगे।
इधर उस स्त्री के दो बच्चे हुए जो
बहुत ही सुशील और आज्ञाकारी
थे। जब वह स्त्री ६० वर्ष की हुई
तो वह बेटों को बोली में
चारो धाम की यात्रा करना
चाहती हूँ ताकि तुम्हारे सुखमय
जीवन के लिए प्रार्थना कर सकूँ।
बेटे तुरंत अपनी माँ को लेकर
चारों धाम की यात्रा पर निकल
गये। एक जगह तीनों माँ बेटे
भोजन के लिए रुके और बेटे
भोजन परोस कर मां से खाने
की विनती करने लगे।
उसी समय उस स्त्री की नजर
सामने एक फटेहाल, भूखे
और गंदे से एक वृद्ध पुरुष
पर पड़ी जो इस स्त्री के
भोजन और बेटों की तरफ
बहुत ही कातर नजर से देख
रहा था। उस स्त्री को उस पर
दया आ गईं और बेटों को
बोली जाओ पहले उस वृद्ध
को नहलाओ और उसे वस्त्र
दो फिर हम सब मिलकर
भोजन करेंगे।
बेटे जब उस वृद्ध को नहलाकर
कपड़े पहनाकर उसे उस स्त्री
के सामने लाये तो वह स्त्री
आश्चर्यचकित रह गयी वह
वृद्ध वही था जिससे उसने
शादी की सुहागरात को ही
Devoice ले लिया था। उसने
उससे पूछा कि क्या हो गया
जो तुम्हारी हालत इतनी
दयनीय हो गई तो उस वृद्ध
ने नजर झुका के कहा कि
सब कुछ होते ही मेरे बच्चे
मुझे भोजन नहीं देते थे,
मेरा तिरस्कार करते थे, मुझे
घर से बाहर निकाल दिया।
उस स्त्री ने उस वृद्ध से कहा कि
इस बात का अंदाजा तो मुझे
तुम्हारे साथ सुहागरात को ही
लग गया था जब तुमने पहले
अपनी बूढ़ी माँ को भोजन
कराने के बजाय उस स्वादिष्ट
भोजन की थाल लेकर मेरे
कमरे में आ गए और मेरे
बार-बार कहने के बावजूद भी
आप ने अपनी माँ का
तिरस्कार किया। उसी का फल
आज आप भोग रहे हैं।
*जैसा व्यहवार हम अपने*
*बुजुर्गों के साथ करेंगे उसी*
*देखा-देख कर हमारे बच्चों*
*में भी यह गुण आता है कि*
*शायद यही परंपरा होती है।*
*सदैव माँ बाप की सेवा ही*
*हमारा दायित्व बनता है।*
*जिस घर में माँ बाप हँसते है,*
*वहीं प्रभु बसते है।*

पानी फेर do इन पन्नो पर...

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न मेरा एक होगा ,न तेरा लाख होगा...

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सजा ये है की बंजर जमीन हूँ मैं ...

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